भरोसे की डोर बहुत महीन
और पारदर्शी होती है
बड़े जतन से बनती है ये डोर
पर इसे टूटने में पल भर भी नहीं लगता
जिन्दगी में छोटी छोटी गलतियाँ ,गलतफैमियां
बात बात पर झूठ ,अविशवास से
इस डोर में पड़ने वाली बारीक बारीक गठाने
इसे कमजोर कर देती हैं
और एक पल भर के झोकें से
जिन्दगी के भरोसे की डोर टूट जाती है
रह जाते हैं पीछे
वजहें खोजते,आरोप मढ़ते
टूटी डोर के दो किनारे थामे दो लोग
बह जाता है आंसुओं में
सारा स्नेह, सारा विशवास
और एक दूसरे में खुद को बाँट लेने के
जी लेने के छोटे छोटे पल
बूँद......
Tuesday, October 12, 2010
Tuesday, October 5, 2010
Friday, September 3, 2010
एक रहय भावुक देश/
ओकर गोर महरानी/
सपन के नाइ राजकुंवर/
हुंकारी भरत सैकडन बजीर आ दरबारी/
उजरी उजरी अट्टालिका के जूड जूड अटारी माँ बैठ /
चालवत हें भावुक देश के राजकाज/
का रानी ,का बजीर ,का दरबारी सब बोलायं एक बोल/
कहयं उनके राज माँ सगरे गरीब होत जात हें धन्नासेठ/
पर अट्टालिका के बहार न देखयं कोऊ/
जन्हा रहय हियाँ से हुआं तक दाना पानी बिना बिलबिलात मनइन के कतारय कतार/
झूल फंदा माँ रोज जात रहय सरग किसान/
भावुक देश का जग जानय खेती खरिहानी केर देश/
एही से दरबार माँ रहो बना सबन्ने के साथ खेती किसानी के बजीर/
लम्ब दंड गोल पिंड के शौक़ीन मोट गाँठ वाला कपार तक अघान बजीर/
नहीं जानत रहा जौन माटी, बीज आ किसान के सम्बन्ध/
नहीं देखे रहा कबो धंसे पेट , निहुरी पीठ और झुरान पसुली /
बजीर के लेत राजकाज पहलें से मरत मनईंन का दूभर होयगा दाना/
दाना के दाम छुयय लाग सरग/
अबे तक मरत रहें दाना बोवय उपजावय वाले/
लागे मरय रोज मजूरी कर खरीद खाय वाले/
ओकर गोर महरानी/
सपन के नाइ राजकुंवर/
हुंकारी भरत सैकडन बजीर आ दरबारी/
उजरी उजरी अट्टालिका के जूड जूड अटारी माँ बैठ /
चालवत हें भावुक देश के राजकाज/
का रानी ,का बजीर ,का दरबारी सब बोलायं एक बोल/
कहयं उनके राज माँ सगरे गरीब होत जात हें धन्नासेठ/
पर अट्टालिका के बहार न देखयं कोऊ/
जन्हा रहय हियाँ से हुआं तक दाना पानी बिना बिलबिलात मनइन के कतारय कतार/
झूल फंदा माँ रोज जात रहय सरग किसान/
भावुक देश का जग जानय खेती खरिहानी केर देश/
एही से दरबार माँ रहो बना सबन्ने के साथ खेती किसानी के बजीर/
लम्ब दंड गोल पिंड के शौक़ीन मोट गाँठ वाला कपार तक अघान बजीर/
नहीं जानत रहा जौन माटी, बीज आ किसान के सम्बन्ध/
नहीं देखे रहा कबो धंसे पेट , निहुरी पीठ और झुरान पसुली /
बजीर के लेत राजकाज पहलें से मरत मनईंन का दूभर होयगा दाना/
दाना के दाम छुयय लाग सरग/
अबे तक मरत रहें दाना बोवय उपजावय वाले/
लागे मरय रोज मजूरी कर खरीद खाय वाले/
एक दिना कुछु ओटु फोटू डब्बा वाले देखिन बहुत एक्का दाना सड़त अटरियन मा/
मूस मारे रहयं मौज/
होइगें मोटाय के मलंग/
घुन के फ़ौज रही उधान/
या टोला से व टोला मा पेट सिकोड़े हाँथ पसारे मची रहय गोहार दाना दाना/
पहुंची लग्गा दूती भावुक देश के न्याय मंदिर/
कहिन पुजारी बाँट देय बजीर भूखन मा सगळा दाना/
बात पहुंची दरबार/
निहारे लागें बजीर मुह घुमाय रानी कैती/
ऊँ ना बोली कुछु/ तबो बजीर जान गें सब कुछु/
मारिन बहाना/
कहाँ कहिस, केसे कहिस/
नहीं आय न्याय मंदिर के कौनो कागज/
फेर कुछु दरबारी जताईन अफ़सोस/
फेर र्रानी ,कुंवर, बजीर, दरबारी/
सब चलेंगे जूड जूड मोटर मा बैठ/
दाना के रस पीन/खाइन पकवान/
लिहिन डकार/
आ गें सोय/
मनइ मरत रहा भावुक देश मा भूख से.
मूस मारे रहयं मौज/
होइगें मोटाय के मलंग/
घुन के फ़ौज रही उधान/
या टोला से व टोला मा पेट सिकोड़े हाँथ पसारे मची रहय गोहार दाना दाना/
पहुंची लग्गा दूती भावुक देश के न्याय मंदिर/
कहिन पुजारी बाँट देय बजीर भूखन मा सगळा दाना/
बात पहुंची दरबार/
निहारे लागें बजीर मुह घुमाय रानी कैती/
ऊँ ना बोली कुछु/ तबो बजीर जान गें सब कुछु/
मारिन बहाना/
कहाँ कहिस, केसे कहिस/
नहीं आय न्याय मंदिर के कौनो कागज/
फेर कुछु दरबारी जताईन अफ़सोस/
फेर र्रानी ,कुंवर, बजीर, दरबारी/
सब चलेंगे जूड जूड मोटर मा बैठ/
दाना के रस पीन/खाइन पकवान/
लिहिन डकार/
आ गें सोय/
मनइ मरत रहा भावुक देश मा भूख से.
Thursday, August 26, 2010
खेल पर हुए खेल में
मैदान में आने से पहले ही
जीतना था जिनको
वे असल खिलाडी तो जीत चुके
बची ही नहीं अब बाज़ी
जितना मर्ज़ी
कूदो फादों, दौड़ो भागो
लो गुलटियाँ
वे मंद मंद मुस्कुराते रहेंगे
बिना किसी शिकन , शर्म के
छाती चौड़ी किए
इसमें हैरान होने जैसा नहीं कुछ
जो लोकतंत्र को खेल
बैठे हैं जीत कर
उन्हें तो खेल में खेल कर
खेल से पहले
जीतना ही था ...
Monday, July 26, 2010
बातें
आप कभी अपने आप से
करते हैं बातें ....
आप कहेंगे सनकी हूँ
जो खुद से बातें करुँ
आप कहेंगे सनकी हूँ
जो खुद से बातें करुँ
...पर वो करती है
बातें अपने आप से
खुद से ही सवाल करती
जवाब तलाशती
बातें अपने आप से
खुद से ही सवाल करती
जवाब तलाशती
कई बार हंसती
जाने क्या बोलती हुई
कभी सहसा कुछ फैलता जाता
कोरों से बह निकले को आतुर
वो समेटती उसे
छुपाती पलकों के भीतर
फिर कुछ बुदबुदाती
जैसे हिदायद दे रही हो
समझा रही हो खुद को
छुपाती पलकों के भीतर
फिर कुछ बुदबुदाती
जैसे हिदायद दे रही हो
समझा रही हो खुद को
कितनी सारी बातें
हंसी की ख़ुशी की
उदासी की समझाइस की
निराशा की हौसले की
वो करती रहती अपने आपसे
पर हज़ार कोशिशों के बाद भी
कई बार उसकी बातें
उतर ही आती उसकी आँखों में
झलकने लगती चेहरे पर
ऐसे ..जैसे
बरस जाना चाहती हों
बूँद बनकर
घुल जाने के लिए
मिटटी में
जैसे उड़ जाना चाहती हों
सोंधी खुशबू बनकर
बादल में
एक बार फिर
बूँद बनकर बरस जाने को
वो सारी बातें
जो करती है वो अपने आप से
................
सोंधी खुशबू बनकर
बादल में
एक बार फिर
बूँद बनकर बरस जाने को
वो सारी बातें
जो करती है वो अपने आप से
................
( अपनी एक दोस्त पर )
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